भारत के देशवासियों, हम सभिने महात्मा गांधी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, लाला लाजपत राय, अशफाक उल्ला खान, जवाहर लाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, बालगंगाधर तिलक जैसे अनेकों स्वतंत्रता सेनानियों के नाम तो ज़रूर सुने होंगे, क्योंकि इन्हीं स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों की कहानी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गौरव गाथा का निर्माण करती है। पर कहीं न कहीं इस गौरव गाथा में हमेशा पुरुष वर्ग का जिक्र ज्यादा रहता है। रानी लक्ष्मीबाई, मैडम भीकाजी कामा, सरोजिनी नायडू, दुर्गा भाभी जैसे कुछ चुनिंदा नामों को छोड़ दिया जाए तो महिला स्वतंत्रता सेनानी (महिला फ्रीडम फाइटर्स) की चर्चा अक्सर उतनी नहीं होती। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि भारतीय महिलाओं का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान कुछ कम था। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। १९४७ स्वतंत्रता संग्राम के हर मोड़ पर महिलाओं ने बढ़ चढ़कर अपना योगदान दिया था।
आज हम कुछ ऐसी ही महिला स्वतंत्रता सेनानी की कहानी लेकर आए हैं, जिनकी शौर्य गाथा को अक्सर इतिहास की किताबों में जगह नहीं मिलती। इन महिला योद्धाओं द्वारा दिखाए गए बलिदान और बहादुरी को समझे बिना भारत की आजादी का इतिहास कभी पूरा नहीं हो सकता। इन महिला योद्धाओं कों याद करके तथा उनके बारे में एक दुसरे को जानकारी देकर १५ अगस्त की हार्दिक शुभकामनाएं प्रगट करें तथा बधाई संदेश दे !
महिला स्वतंत्रता सेनानी – कित्तूर की रानी चेन्नम्मा !
रानी चेन्नम्मा (Kittur Queen Chennamma) कित्तूर कर्नाटक देश की रानी थी। ऐसा कहा जाता है कि रानी चेन्नम्मा ब्रिटिशर्स के खिलाफ हथियार उठाने वाली पूरे भारत की पहली महिला थी। यूं तो, ये भारत से ब्रिटिशर्स को भगाने में पुरी तरह सफल नहीं हुई, लेकिन ब्रिटिशर्स के खिलाफ किए गए उनके इस विद्रोह ने पूरे भारत की नारियों के लिए प्रेरणा का काम किया। अगर इनके जीवन की बात करें तो इनका जन्म २३ अक्टूबर १७७८ में कर्नाटका के एक छोटे से गांव ककाती (Kakati) में हुआ। (वर्तमान में कर्नाटक के बेलगावी जिले में हैं) ! बचपन से ही ये अपनी युद्ध कौशल के लिए जानी जाती थी। १५ साल की छोटी उम्र में, कित्तूर चेन्नम्मा का विवाह राजा मल्लास राजा देसाई (Raja Mallasarja) से हुआ था। और उनसे उनकी एक बेटे की प्राप्ति हुई। कुछ सालों बाद उनकी बेटे की मृत्यु हो गई और शायद इसी वजह से रानी चेन्नम्मा को ब्रिटिशर्स के खिलाफ जंग छेड़ने पड़ी।
दरअसल, ब्रिटिशर्स द्वारा डॉक्ट्रिन और लैप्स (The Doctrine of Lapse) नाम की पॉलिसी को भारत में लागू किया गया था! जिसके तहत किसी भी भारतीय राजा की अपनी खुद की संतान न होने पर उसका राज्य ब्रिटिश एम्पायर में विलय कर लिया जाता था। यानी उन्हें अडॉप्ट चाइल्ड (दत्तक बालक) को अपना उत्तराधिकारी बनाने का अधिकार नहीं दिया जा रहा था। इसके लिए उन्हें ब्रिटिश सरकार से सहमति लेनी जरुरी होती थी, जो ज्यादातर वो देते थे और इस तरह ज्यादा से ज्यादा भारतीय राज्यों को हड़पने की तैयारी थी। कित्तूर राज्य के साथ भी यही होना तय था, क्योंकि उस समय कित्तूर का कोई उत्तराधिकारी नहीं था। रानी चेन्नम्मा और कित्तूर के लोगों को यह बिल्कुल भी मंजूर नहीं था। उन्होंने अपनी छोटी से राज्य के सभी लोगों को एकजुट किया और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह शुरू कर दिया।
इस विद्रोह में ब्रिटिश पुलिस के कई जवान मारे जाते हैं। जब ब्रिटिश गवर्नमेंट को मालूम चला कि एक छोटे से राज्य के लोगों ने उनके कई सारे ऑफिसर्स की हत्या कर दी है, तब उन्होने कित्तूर पर एक बड़ी सेना के माध्यम से आक्रमण करवाया। इस आक्रमण में भी जब रानी चेन्नम्मा और उनकी टीम की जीत होने लगी तो ब्रिटिश आर्मी ने उनके साथ छल कपट करना शुरू कर दिया। इसके तहत ब्रिटिश आर्मी रानी चेन्नम्मा के किले में घुस गई और वहां उनकी तोपों से गन पाउडर निकालकर उसमें कीचड़ भरना शुरू कर दिया। ऐसा करने से रानी चेन्नम्मा की सभी तोप बर्बाद हो गई और वह ब्रिटिशर्स के खिलाफ जंग में हारने लगी। रानी चेन्नम्मा को बंदी बना लिया गया और उन्हें पांच साल तक जेल में रखा गया जिस दौरान उनकी मृत्यु हो गई।
दोस्तो, रानी चेन्नम्मा अंत में ब्रिटिशों से हार ज़रूर गई, लेकिन एक समय के लिए उन्होंने अपनी एक छोटी सी फौज के साथ ही ब्रिटिश गवर्नमेंट को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। इनकी इसी वीरता से प्रेरित होकर भारतीय महिलाओं ने ब्रिटिशो के खिलाफ जंग में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेना शुरू किया।
महिला स्वतंत्रता सेनानी – बेंगाल की वीरांगना मातंगिनी हाजरा !
रानी चेन्नम्मा के बाद हम जानेंगे बेंगाल की वीरांगना मातंगिनी हाजरा / हजरा (MATANGINI HAZRA) के बारे में। मातंगिनी हाजरा को बंगाली में प्यार से गांधी बुरी (Gandhi Buri) बुलाते हैं ! जिसका मतलब होता है ओल्ड लेडी गांधी। वर्ष १९०५ से ही मातंगिनी हाजरा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। आगे चलकर ये गांधीजी की विचारधारा से काफी प्रेरित हुई और उनके आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया । १९३० में सविनय अवज्ञा आंदोलन (Civil Disobedience Movement) में अपनी भागीदारी देते हुए इन्होंने नमक अधिनियम, Salt Act (सॉल्ट एक्ट) को तोड़ दिया, जिसके कारण इन्हे तुरुंगवास भी हुवा। हालांकि गिरफ्तार होने के कुछ ही समय बाद इनको मुक्त कर दिया गया। लेकिन मुक्त होने के बाद भी इन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विरोध करना जारी रखा। जिसके कारण उन्हें फिर से ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। इस बार उन्हें छह महीने के लिए बलरामपुर जेल में बंद किया गया।
जेल से रिहा होने के बाद मातंगिनी हाजरा ने इंडियन नेशनल कांग्रेस को जॉइन किया। इसके बाद उन्होंने श्रीरामपुर का सब डिविजनल कांग्रेस कन्फेडरेशन भी अटेंड किया। इस कॉन्फ्रेंस को रोकने के लिए ब्रिटिश गवर्नमेंट ने पुलिस फोर्स का यूज किया, जिसके कारण स्वतंत्रता सेनानियों और पुलिस फोर्स में टकराव देखने को मिला और इस भिड़ंत में मातंगिनी हाजरा भी काफी चोटिल हो गई। लेकिन घायल होने के बाद भी, इन्होंने अपना पार्टिसिपेशन जारी रखा। फिर १९४२ में इन्होंने मेदिनीपुर में क्विट इंडिया मूवमेंट के तहत हो रहे प्रोटेस्ट को जॉइन किया। इस मूवमेंट के तहत वह और उनके सभी साथी मेदिनीपुर को ब्रिटिश कंट्रोल से आजाद करवाना चाहते थे। इसी मूवमेंट के दौरान २९ सप्टेंबर १९४२ को तामलुक पुलिस स्टेशन के ठीक सामने जब यह प्रोटेस्ट कर रही थी, तब ब्रिटिश पुलिस द्वारा इन पर तीन गोलियां चलाई गई, जिससे इनकी मृत्यु हो गई।
जब इन्हें गोली मारी जा रही थी, तब भी उन्होंने अपना साहस बरकरार रखा और मरते वक्त भी जोर जोर से वंदे मातरम बोलती रही। मातंगिनी हाजरा एक सच्ची देशभक्त थी ! जिन्होंने पूरे साहस और शक्ति के साथ ब्रिटिशर्स का सामना किया और भारत की आजादी की लड़ाई में एक अहम रोल निभाया।
महिला स्वतंत्रता सेनानी – आसाम की बेटी कनकलता बरुआ ! बीरबाला / वीरबाला
मातंगिनी हाजरा के बाद बात करते हैं आसाम की बेटी और प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी कनकलता बरुआ (Kanaklata Barua) के बारे में। कनकलता बरुआ को बीरबाला (Birbala) के नाम से भी जाना जाता है। यह आसाम थी और उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपना अहम योगदान दिया। वीरबाला ने १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन (QUIT INDIA MOVEMENT) में काफी बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। इस आंदोलन के तहत उन्होंने (Barangbari Region) बारंगबाड़ी क्षेत्र, की महिलाओं के ग्रुप को लीड किया और ब्रिटिशर्स के खिलाफ उन सभी फीमेल स्वयंसेवक ग्रुप्स के साथ मिलकर एक मोर्चा निकाला। इस मोर्चे का एक ही मुद्दा था और वो था ब्रिटिश प्रभुत्व वाले गोहपुर पुलिस स्टेशन में, ब्रिटिश सरकार भारत छोड़ो, जैसे नारे लगाते हुवे भारतीय ध्वज फहराना !
हालांकि बीरबाला / वीरबाला अपने इस लक्ष्य में सफल नहीं हो पाईं क्योंकि ब्रिटिश फोर्सेज ने इन्हें बीच रास्ते में ही रोक दिया। लेकिन ब्रिटिशर्स द्वारा रोके जाने के बावजूद वह अपने लक्ष्य के प्रति अटल रहीं। जब ब्रिटिशर्स को लगा कि धीरे धीरे अब स्थिति नियंत्रण से बाहर हो रही है, तब उन्होंने बीरबाला और उनकी महिला वॉलंटियर्स पर गोलीबारी शुरू कर दी !और इस तरह इन्होंने देशप्रेम के लिए अपने प्राणों का बलिदान तक कर दिया। वीरबाला अपनी शहादत के समय केवल १८ वर्ष की थी। इनकी छोटी सी आयु में देश के लिए इनका बलिदान और समर्पण अपने आप में अतुलनीय है।
महिला स्वतंत्रता सेनानी कैप्टन लक्ष्मी सहगल !
वीरबाला के बाद हम जानेंगे लक्ष्मी सहगल (LAKSHMI SAHGAL) के बारे में ! जिनकी शौर्य गाथा भारत और सिंगापुर दोनों देशों में गाई जाती है। कैप्टन लक्ष्मी सहगल अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध हैं। वैसे तो इनकी शिक्षा दीक्षा एक डॉक्टर के रूप में हुई थी, लेकिन इन्होंने स्वतंत्रता सेनानी बन देश की रक्षा की। लक्ष्मी सहगल के स्वतंत्रता सेनानी बनने का सफर सिंगापुर से शुरू हुआ। सिंगापुर में इन्होंने इंडियन इंडिपेंडेंस लीग में काफी सक्रिय रूप से भाग लिया ! और साथ ही साथ वह वहां रह रहे भारत के प्रवासी मजदूर (माइग्रेंट लेबर्स) के लिए एक क्लीनिक चलाया करती थी।
इसी दौरान उन्हें सुभाषचंद्र बोस के विचारों के बारे में भी पता चला। सुभाष चंद्र बोस अपनी इंडियन नेशनल आर्मी में एक वूमेन (महिला) रेजिमेंट भी बनाना चाहते थे, जो भारत की आजादी के लिए लड़ सके। इसके बारे में पता चलते ही लक्ष्मी सहगल ने उनके साथ एक मीटिंग की और इस वूमेन रेजिमेंट को हेड करने की इच्छा जाहिर की। सुभाष चंद्र बोस तुरंत ही मान गए और लक्ष्मी सहगल को रानी लक्ष्मीबाई नाम से बनी इस रेजिमेंट का कैप्टन बनाया गया। जिस वजह से यह कैप्टन लक्ष्मी के नाम से काफी पॉप्युलर हुई। लक्ष्मी सहगल ने खुद तो भारत के स्वतंत्रता संग्राम में काफी सक्रिय रूप से भाग लिया ही, साथ ही साथ उन्होंने ब्रिटिशर्स के खिलाफ इस जंग में हजारों की तादाद में महिलाओं को इकट्ठा किया। इस जंग के तहत दिसंबर १९४४ में लक्ष्मी सहगल और उनकी राणी झांसी रेजिमेंट ने जैपनीज आर्मी के साथ मिलकर बर्मा पर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ अटैक किया।
इसके बाद, इनका प्लान नॉर्थ ईस्ट की तरफ से इंडिया में घुसना था और वहां से ब्रिटिशर्स को खदेड़ना था। लेकिन बैटल ऑफ इंफाल के दौरान इनका सामना एक बड़ी ब्रिटिश फोर्स के साथ होता है। जिसके बाद लक्ष्मी सहगल को यहां से वापस लौटना पड़ता है। वापस लौटते वक्त इन्हें ब्रिटिशर्स ने १९४५ में अरेस्ट कर लिया। इसके बाद इन्हें बर्मा जेल में कैद कर दिया गया। कुछ समय बाद १९४६ में ब्रिटिशर्स ने उन्हें रिहा कर भारत की ओर वापस भेज दिया। भारत आकर भी लक्ष्मी सहगल ने इंडियन फ्रीडम स्ट्रगल में पार्टिसिपेट करना नहीं छोड़ा और जैसा कि लक्ष्मी पहले से डॉक्टर थी। आगे चलकर इन्होंने अपना जीवन लोगों की सेवा में गुजार दिया। लक्ष्मी सहगल ने एक मिलिट्री वूमेन और एक डॉक्टर दोनों ही रूप में देश की सेवा की। इन्होंने ब्रिटिशर्स के खिलाफ बंदूक भी उठाई और साथ ही साथ घायल सैनिकों की सेवा भी की। इनकी कहानी पूरे विश्व के लिए काफी प्रेरणादायी है।
बिहार की गृहणी तारा रानी श्रीवास्तव !
आप जानते हैं बिहार की एक साधारण सी गृहणी तारा रानी श्रीवास्तव (Tara Rani Srivastava) की कहानी, जिन्होंने अपना पूरा जीवन देश हित में लगा दिया। तारा रानी श्रीवास्तव का जन्म सारण बिहार में हुआ। आगे चलकर उनकी शादी फुलेन्दु बाबू (PHULENDU BABU) बाबू से हुई और तारा रानी ने अपने पति के साथ मिलकर १९४२ में महात्मा गांधी का क्विट इंडिया मूवमेंट (भारत छोड़ो आंदोलन) ज्वॉइन किया। उनके इस आंदोलन को ज्वॉइन करने का केवल एक ही मकसद था और वह था ब्रिटिश नियंत्रित सिसवण थाना, सिवान पुलिस स्टेशन पर भारतीय झंडे को फहराना। अपने इसी मकसद को पूरा करने के लिए तारा ने आसपास की सभी महिलाओं को प्रेरणा दे कर इस आंदोलन से जोड़ लिया। जब एक बड़ी संख्या में लोग उनके साथ आ गए तो तारा रानी ने अपने पति और सभी लोगों के साथ मिलकर सिवान पुलिस स्टेशन की ओर अपना मार्च शुरू किया।
तारा रानी यह मार्च, इंकलाब का नारा लगाते हुए कर रही थी। ब्रिटिश गवर्नमेंट को जब इस मार्च के बारे में पता चला तो उन्होंने उसे रोकने के लिए तारा रानी के ग्रुप पर गोलियां चलाना शुरू कर दी। इस गोलाबारी में तारा रानी के पति को भी गोली लग गई, जिसकी वजह से वहीं मौके पर ही उनकी मौत हो गई। लेकिन इतना सबकुछ होने के बाद भी तारा रानी ने इंकलाब बोलते हुए अपने मार्च को जारी रखा। वैसे तो वह इस मार्च में सफल नहीं हुई पर ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपने मृत पति से भारत को आजाद कराने का वादा किया था !और इसी वादे को पूरा करने के लिए उन्होंने अपनी लड़ाई तब तक जारी रखी, जब तक भारत आजाद नहीं हो गया। तारा रानी के इस जज्बे को जितनी सलामी दी जाए उतनी कम है। उन्होंने अपनी घर गृहस्थी की चिंता छोड़ निस्वार्थ रूप से अपना पूरा जीवन आजादी की लड़ाई में व्यतीत कर दिया।
चित्तगोंग (Chittagong) की प्रीतिलता वादेदार!
तारा रानी के बाद अब यह बात करते हैं बहादुर स्वतंत्रता सेनानी प्रीतिलता वादेदार की। प्रीतिलता वादेदार (Pritilata Waddedar) का जन्म ५ मई १९११ को बंगाल के चित्तगोंग (Chittagong) में हुआ था, जो आज बांग्लादेश का हिस्सा है। ब्रिटिशर्स के खिलाफ प्रीति लता ने एक रिवॉल्यूशनरी ऑर्गनाइजेशन दीपाली संघ (DEEPALI SANGH) को जॉइन किया। इस ऑर्गेनाइजेशन में महिलाओं को कई तरह के फाइटिंग टेक्नीक्स (FIGHTING TECHNIQUES) सिखाए जाते थे। इन टेक्नीक्स को सीखने के बाद प्रीतिलता बंगाल की रेवोल्यूशनरी, सूर्यसेन, की इंडियन रिवोल्यूशनरी आर्मी में शामिल होना चाहती ती थी !, लेकिन उन्हें इसको ज्वॉइन करने की अनुमति नहीं दी गई क्योंकि इस आर्मी में केवल पुरुषों को भर्ती किया जाता था।
लेकिन फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और इस सशस्त्र ऑर्गेनाइजेशन को ज्वॉइन करने के लिए काफी (कठिन सैन्य प्रशिक्षण) हार्ड मिलिट्री ट्रेनिंग ली। इस ट्रेनिंग में इन्होंने कई (युद्ध कौशल) कॉम्बैट स्किल्स सीखे। इस ट्रेनिंग के बाद उन्हें इंडियन रिवोल्यूशनरी आर्मी को ज्वॉइन करने की अनुमति दे दी गई। इसके बाद प्रीतिलता को ७ से १० मिलिट्री मैन का कमांड सौंपा गया और इन्हें पाहारताली यूरोपियन क्लब (Pahartali European Club) पर “रेड” डालने का मिशन दिया गया। इस क्लब को “रेड” के लिए इसलिए चुना गया क्योंकि यहां पर ब्रिटिशर्स द्वारा भारतीयों को अपमानित किया जाता था। इस क्लब में ब्रिटिशर्स कई तरह से भारतीयों का शारीरिक एवं मानसिक शोषण करते थे ! और ब्रिटिशर्स ने इस क्लब के बाहर एक साइन बोर्ड भी लगाया हुआ था, जिस पर ये साफ लिखा था डॉग्स अँड इंडियंस नॉट अलाउड ! प्रीतिलता, इधर अपने साथियों के साथ एक पुरुष के भेष में क्लब पहुंच जाती हैं और ये लोग इस पर कब्जा कर लेते हैं।
क्लब को फ्री करने के लिए ब्रिटिशर्स द्वारा उनके और उनके ग्रुप पर अटैक किया जाता है। इस मुठभेड़ में प्रीति लता के कई साथी मारे गए और उन्हें भी गोली लग गई। गोली लगने के बावजूद उन्होंने ब्रिटिशर्स के सामने घुटने नहीं टेके, लेकिन प्रीति लता के पास वहां से बाहर जाने का मार्ग नहीं था ! और ब्रिटिशर्स द्वारा उन्हें पकड़ा न जा सके इसीलिए उन्होंने साइनाइड का एक टैबलेट खाकर स्वयं की जान दे दी। ये थी प्रीति लता दीदी की कहानी कि कैसे उन्होंने ब्रिटिशर्स के खिलाफ लड़ाई की और साथ ही साथ भारत की मेल डोमिनेटेड, सोसायटी और समाज के रूढ़ीवादी तत्वों पर भी करारा प्रहार किया।
मणिपुर की प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी पमई गाइदिन्ल्यू !
प्रीति लता के बाद हम जानेंगे मणिपुर (Manipur) की प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी पमई गाइदिन्ल्यू (PAMAI GAIDLINLIU) के बारे में। पमई गाइदिन्ल्यू, नागा जनजाति की स्वतंत्रता सेनानी थी ! जो पूर्वोत्तर भारत के मणिपुर से थी। पमई की गौरव गाथा पूरे सम्मान के साथ मणिपुर और आसपास के नागा क्षेत्रों में गाई जाती है। इन्होने मात्र १३ वर्ष की आयु से ही अपना जीवन भारत देश और नागा जनजाति की रक्षा में व्यतीत करना शुरू कर दिया था। जब ये १३ वर्ष की थी, तब इन्होने अपने चचेरे भाई द्वारा शुरू किए गए हीराका (HERAKA) आंदोलन को जॉइन किया। ये आंदोलन एक धार्मिक आंदोलन था। इस मूवमेंट का एक ही मकसद था और वो था ब्रिटिशर्स द्वारा नागाओं पर होने वाले शोषण को रोकना। दर असल ब्रिटिशर्स जोर जबरदसती नागा जनजाति के लोगों का क्रिश्चियनिटी (Christianity) में परिवर्तन करने लगे थे और इसी को रोकने के लिए पमई ने ये आंदोलन जॉइन किया।
पमई शामिल होने के बाद, धीरे धीरे ये धार्मिक आंदोलन एक राजनीतिक आंदोलन बनता गया, जिसके तहत पमई और इस मूवमेंट के अन्य मेंबर्स ब्रिटिशर्स को पूरी तरह से नागा रीजन से भगाना चाहते थे और वहां नागा राज्य स्थापित करना चाहते थे। इन्होंने ब्रिटिशर्स के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध शुरू कर दिया। इस गुरिल्ला युद्ध के कई लक्ष्य थे, जैसे नागा आदिवासी धर्म को पुनर्जीवित करना, क्रिश्चियन कन्वर्जन को रोकना, ब्रिटिशर्स द्वारा लगाए गए भारी कर को समाप्त करना इत्यादि। और इन्ही कारणों की वजह से पमई और उनकी टीम ने ब्रिटिशर्स के विरोध में अपना आंदोलन शुरू किया। इस विद्रोह के तहत कुछ समय बाद पमई और उनकी टीम ब्रिटिशर्स पर हावी होने लगी और ब्रिटिशर्स को जब ऐसा लगने लगा कि वो हार रहे हैं तब उन्होंने पमई को अरेस्ट करने की कोशिश की और उनके खिलाफ सर्च वॉरंट जारी किया। लंबे समय तक तो ब्रिटिशर्स उनकी खोज नहीं कर पाए, लेकिन १९३२ में ब्रिटिशर्स ने उन्हें ढूंढ निकाला और उन्हें अरेस्ट भी कर लिया।
मणिपुर की प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी पमई गाइदिन्ल्यू – रानी की उपाधि
अरेस्ट करने के बाद ब्रिटिश गवर्नमेंट ने उन्हें उम्र कैद की सजा सुनाकर जेल में बंद कर दिया। पमई जब जेल में कैद थी, तब १९३७ में जवाहर लाल नेहरू उनसे मिलने पहुंचे और उन्होंने उन्हें जल्द से जल्द रिहा कराने का वादा किया। इसके साथ ही साथ उन्होंने पमई की वीरगाथा सुनकर उन्हें रानी की उपाधि भी दी। आगे चलकर उनकी ये उपाधि काफी लोकप्रिय हुई। जवाहर लाल नेहरू ने अपना वादा पूरा भी किया और १९४७ में भारत की आजादी के साथ ही पमई को भी जेल से रिहाई मिली। उसके बाद पमई ने अपना पूरा जीवन, झेलिओनगॉन्ग ट्रायबल ग्रुप (Zeliangong Tribal Group) के विकास और उनके हक की लड़ाई में व्यतीत कर दिया। ये थी पमई गाइदिन्ल्यू की कहानी कि कैसे इन्होंने इतनी कम उम्र में अपने देश और समुदाय दोनों की रक्षा की।
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निष्कर्ष !
भारत की आजादी में स्त्रियों ने हमेशा से ही एक अहम भूमिका निभाई थी ! स्त्रियां, जो अपनी ममता, सहानुभूति और कोमलता के लिए जानी जाती थी और जिन्हें हमेशा से घर के कामकाज में झोंक दिया जाता था और हमेशा से पुरुषों के पीछे चलना सिखाया गया था, उन्हीं स्त्रियों ने अंग्रेजों को कई मौकों पर धूल चटा दी थी। भारत की ये वीरांगनाएं काफी प्रेरणादायी हैं और उनसे हमें यह सीख मिलती है कि भले ही कितनी भी विपरीत परिस्थितियां हों, हमें अपने अंदर देशप्रेम की भावना जरूर जागृत रखनी चाहिए। तो दोस्तों, क्या आपने सुनी थी इन वीर स्त्रियों की कहानी? क्या आपको और ऐसी स्त्रियों के नाम और कहानियां पता हैं जिनके योगदान की चर्चा अक्सर नहीं होती? और आखिर क्या कारण थे जिसकी वजह से इन वीर स्त्रियों को उतनी इम्पोर्टेंस नहीं मिलती जितनी की पुरुष स्वतंत्रता सेनानियों को मिलती आई है। अपनी राय कमेंट में जरूर शेयर कीजिए।
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