पेडोंगी नाम पढ़कर हम भ्रमित हो जाएंगे। पेडोंगी एक खच्चर का नाम है। लेकिन ये खच्चर कोई ऐसी-वैसी खच्चर नहीं है बल्कि इसने भारत की रक्षा के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी है !

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खच्चर भारतीय सेना का अभिन्न अंग है। वर्तमान समय में भारतीय सेना में ६००० से अधिक खच्चर कार्यरत हैं। भारतीय सेना की कई चौकियाँ ऐसी जगहों पर स्थित हैं जहाँ आज भी कोई वाहन नहीं जा सकता।  इस मुश्किल घड़ी में भारतीय सेना की मदद के लिए खच्चर तैनात हैं !

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ये खच्चर उच्च ऊंचाई पर बहुत ठंडी और विरल हवा में काम कर सकते हैं। बहुत पथरीले और फिसलन भरे रास्ते पार कर सकते हैं। इसके अलावा ये खच्चर बहुत ईमानदार होते हैं। इसीलिए वे आज भी भारतीय सेना की रीढ़ बनकर भारत की रक्षा में अपना योगदान दे रहे हैं।

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भारतीय सेना में खच्चरों की पहचान विशिष्ट संख्या के अनुसार की जाती है ! 'पेडोंगी' का वास्तविक सैन्य नाम खुर संख्या १५३२८ था। १९६२ में पेडोंगी भारतीय सेना में शामिल हुई थी । उस समय आधुनिक संचार प्रणालियों और उन्नत वाहनों के अभाव में पूरी भारतीय सेना खच्चरों पर निर्भर थी।

बम धमाकों, गोलियों की बौछार, प्रकृति के प्रकोप के बावजूद पेडोंगी और उनके साथियों ने भारतीय सेना को रसद पहुंचाने का काम ईमानदारी से किया ! वर्ष १९७१ में भारत-पाकिस्तान युद्ध शुरू हो गया !

भारतीय सेना को रसद की आपूर्ति करते समय, पेडोंगी को पाकिस्तानी सेना ने पकड़ लिया और उसे पोस्ट पर बंदी करके रख दिया ! अब उसे  पाकिस्तान आर्मी के लिये काम करने के लिये लगा दिया !   कौन कहता है कि जानवरों में भावनाएँ नहीं होतीं?

भारतीय सीमा की रक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डालने वाले पेडोंगी अपनी पीठ पर एक मीडियम मशीन गन और दो बक्से गोलियों के साथ पाकिस्तानी सेना को ललकारते हुए भाग निकली ।

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अपनी जान की परवाह किए बगैर गोलियों की बौछार के बीच करीब २५ किलोमीटर की दूरी तय की और भारतीय सीमा में प्रवेश कर भारतीय पोस्ट पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई ! हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि पीठ पर मशीन गन और गोला-बारूद के दो  बॉक्स लेकर दुश्मन के इलाके में १७००० फीट की ऊंचाई पर २५ किलोमीटर दौड़ना कैसा होगा ?

अपने देश के प्रति उनकी ईमानदारी और प्यार को देखकर, भारत में उस पोस्ट पर बटालियन कमांडर ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को पेडोंगी की उपलब्धि पर ध्यान देने की सिफारिश की।

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१९८७ में पेडोंगी भारतीय सेना की ८५३ एटी कंपनी एएससी में कार्यरत थी ! २९ साल की उम्र में, पेडोंगी सबसे उम्रदराज़ खच्चर थी, लेकिन उस उम्र में वह लगभग १७००० फीट की ऊंचाई पर अपनी पीठ पर बोझ ढो रही थी। इस यूनिट के कमांडिंग ऑफिसर मेजर चुन्नीलाल शर्मा ने पेडोंगी की वीरता पर ध्यान दिया और उन्हें सामान उठाने से मुक्त कर दिया।

उसे आधिकारिक तौर पर ५३ एटी कंपनी एएससी की कंपनी (एंजेल) शुभंकर के रूप में नियुक्त किया गया ! पेडोंगी को उसकी सेवा के लिए यूनिट के १९८९-९० के ग्रीटिंग कार्ड पर चित्रित किया गया था ! बाद में उसे उत्तर प्रदेश के बरेली में उसी यूनिट में तैनात किया गया ! यहां के बहुत बड़े इलाके में पेडोंगी ने अपना समय आराम से बिताया !

१९९२ में पेडोंगी को एक विशेष कार्यक्रम के लिए दिल्ली ले जाया  गया। वहां २२३ वें कोर दिवस कार्यक्रम में पेडोंगी को उसकी बहादुरी और देश के प्रति सेवा के लिए कर्नल गिरधारी सिंह ने मखमली नीला कंबल देकर सम्मानित किया। उसी समय उनका नाम पेडोंगी /  'पेडॉन्गी' रखा गया।

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इसका नाम उत्तरी सिक्किम में पेडोंग के युद्धक्षेत्र के नाम पर रखा गया था। अद्वितीय वीरता के लिए भारतीय सेना में काम करने वाले घोड़ों को नामित करने के लिए सम्मानित किया गया है, लेकिन पेडोंगी यह सम्मान पाने वाले एकमात्र खच्चर है । उसके नाम का विश्राम कक्ष भी आर्मी में बना है !

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जब १९९७ में पेडोंगी की सेवा को गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज किया गया, तो उसका नाम दुनिया की किसी भी सेना में सबसे लंबे समय तक सेवा देने वाले खच्चर के रूप में हमेशा के लिए सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो गया।

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२५ मार्च १९९८ को पेडोंगी ने बड़ी संतुष्टि के साथ अंतिम सांस ली और एक युग का अंत हो गया !

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ऐसा कहा जाता है कि एक बार खच्चर को रास्ता दिखा दिया जाए तो वह जीवन भर आपको रास्ता दिखाता रहता है। लेकिन पेडोंगी का पराक्रम अभूतपूर्व था। यह जानते हुए कि उसका दुश्मन कौन है और उसका दोस्त कौन है, उसने अपना पूरा जीवन १७००० फीट पर भारतीय सीमा की रक्षा करने वाले सैनिकों को समर्पित कर दिया। ये एक तरह की अतुलनीय देशभक्ति है !

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इंटरनेट संस्करण का निष्कर्ष है, "उपरोक्त कहानी सत्यापन के लिए टी एएससी केंद्र और कॉलेज, बेंगलुरु में खुली है, जहां पदक आज तक पेडोंगी की फोटोग्राफ के साथ संरक्षित है। श्रेय- विनीत वर्तक.

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